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सत्य कहा हे की बिना कर्ता के जिस प्रकार कोई क्रिया नहीं होती इसी प्रकार ये अनंत जगत स्वयं नहीं बन सकता ऐसा सोचना तो वो ही बात होगी की आटे में स्वयं पानी मिल गया और स्वयं रोटी सिक गयी और बिना हाथ के तोड़े मुह में चली गयी जेसे ये संभव नहीं वेसे ही इस ब्रह्माण्ड का स्वयं बनना संभव नहीं इसका रचनाकार तो वो ही हे जिसे वेद कहते हे सर्वसक्तिमान या परमपिता परमात्मा जिसका निज नाम ॐ हे अ उ म यानि त्रि सकती रचन ,धारण ,प्रलय , सब कुछ उसी में समाहित हे जब प्रकर्ती सुसुप्त अवस्था में होती हे तब रचन काल पर वोही पिता इस प्रकर्ती को जो सूक्ष्म अनु रूप में होती हे पुन जगदाकार रूप में लाता हे ताकि पूर्व काल के जो जीवात्माए हे वो अपने कर्मो का भोग प़ा सके और उनमे जो दोष हे उने दूर कर उन्नति कर एक दिन उस जगत्पिता के सनिन्धिया रूपी अनंत सुख को प़ा सके अर्तार्थ मोक्ष पाए जो मानव जीवन का परम उदेश्य हे और सब कुछ तो इस जीवन रूपी यात्रा के लिए उस पिता ने खेल खिलोने दिए हे ताकी जीवन के लम्बे सफ़र का यात्री इससे बोर न हो / अब कोई इन खेल खिलोनो को ही जीवन का उद्देश्य मान ले तो ये उसकी भूल नही तो क्या हे “जींदगानी के सफ़र पर लाया गया हु खिलोने देकर बहलाया गया हु ” पर खिलोनो से बहलना तो बच्चो का काम हे हम कब तक बच्चे बने रहंगे सही हे जीवन में जो कर्त्तव्य हे उन्हें भी पूरा करे क्योकि स्वयं वेद भगवान ने भी येही कहा हे जिन्दगी केसे जियो “न्रत्याय च हसाय ” यानि प्रस्सनता पूर्वक पर साथ ही जीवन के उस अंतिम लक्ष्य को भी न भूले /
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